Sanatan Dharma Death Rituals | सनातन धर्म में मृत्यु के 13 दिन बाद – मरने के बाद क्या होता है

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सनातन धर्म में मृत्यु के बाद क्या है

सनातन धर्म, जिसे आमतौर पर हिंदू धर्म कहा जाता है, विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। यह धर्म न केवल जीवन जीने की कला सिखाता है, बल्कि मृत्यु और मृत्यु के बाद की यात्रा को भी विस्तार से समझाता है। (Sanatan Dharma Death Rituals) सनातन धर्म में यह माना जाता है कि मृत्यु एक अंत नहीं बल्कि एक नई यात्रा की शुरुआत है। (Sanatan Dharma Death Rituals)जब कोई व्यक्ति इस संसार को छोड़ता है, तो उसकी आत्मा एक विशेष यात्रा पर निकलती है और उन 13 दिनों तक परिजनों द्वारा किए गए संस्कार उसकी आत्मा की गति को प्रभावित करते हैं। 

मृत्यु का तात्त्विक अर्थ

हिंदू दर्शन के अनुसार, मनुष्य शरीर नश्वर है लेकिन आत्मा अमर है। भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

न जायते म्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”

अर्थात आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है, वह शाश्वत, पुरातन और अजर-अमर है।

मृत्यु के तुरंत बाद क्या होता है?

जब कोई जीव इस शरीर को त्यागता है, तो उसकी आत्मा सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, अहंकार से युक्त) के साथ अगले गंतव्य की ओर बढ़ती है। मृत्यु के तुरंत बाद आत्मा कुछ समय तक अपने शरीर और प्रियजनों के आसपास मंडराती रहती है। इसे “प्रेत अवस्था” कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा कुछ भ्रमित और असमंजस में होती है क्योंकि वह अभी तक पूर्ण रूप से इस लोक को नहीं छोड़ पाई होती। 

13 दिन का महत्व क्या है?

सनातन धर्म में मृत्यु के पश्चात 13 दिन का विशेष महत्व होता है। इसे ‘अन्त्येष्टि संस्कार’ की प्रक्रिया कहा जाता है। इन 13 दिनों में मृत आत्मा को यमलोक या पितृलोक की यात्रा पर भेजने की तैयारी की जाती है। इस यात्रा को सफल बनाने के लिए परिजन विशेष विधियों और कर्मकांडों का आयोजन करते हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है:

मृत्यु के बाद के 13 दिनों के प्रमुख संस्कार

1. अन्त्येष्टि (मृत्यु के दिन)

मृत्यु के तुरंत बाद शुद्धिकरण, स्नान, विलेपन, नए वस्त्र पहनाकर शव को अग्नि समर्पित किया जाता है। हिन्दू धर्म में शव का दाह संस्कार किया जाता है, जिससे पंच तत्वों में उसका विलय हो सके – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।

2. हवन और प्रार्थना

संस्कार के दौरान अग्नि के माध्यम से विशेष मंत्रों का उच्चारण होता है ताकि आत्मा को शांति मिले और वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ सके। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के मंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

3. अशौच काल (10 से 13 दिन)

परिवार के सदस्य इस काल में किसी शुभ कार्य में भाग नहीं लेते। यह शोक की अवधि होती है। इस दौरान घर की शुद्धता बनाए रखने हेतु विशेष नियमों का पालन किया जाता है।

4. पिंडदान

प्रत्येक दिन आत्मा को पिंड (अन्न, तिल और घी से बना विशेष भोजन) अर्पण किया जाता है ताकि वह सूक्ष्म शरीर में ऊर्जा प्राप्त कर सके और यमलोक की यात्रा प्रारंभ कर सके। 

5. एकादशाह (11वां दिन)

11वें दिन विशेष रूप से “एकादशाह श्राद्ध” किया जाता है। इस दिन ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, और दक्षिणा देकर आत्मा के पापों को क्षमा कराने की प्रार्थना की जाती है।

6. द्वादशाह और त्रयोदशि (12वां और 13वां दिन)

12वें दिन ‘सपिंडीकरण’ संस्कार किया जाता है, जिससे आत्मा को पितरों की संगति में स्थान मिलता है। 13वें दिन ‘तीरथ श्राद्ध’ और ‘उत्तम तर्पण’ किया जाता है।

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यमलोक की यात्रा (मृत्यु के बाद की आत्मा की यात्रा)

गरुड़ पुराण और अन्य ग्रंथों में वर्णित है कि आत्मा मृत्यु के पश्चात यमदूतों के साथ यमराज के लोक की ओर बढ़ती है। इस यात्रा को 17 दिनों में विभाजित किया गया है, जिसमें पहले 13 दिन आत्मा पृथ्वी पर भ्रमण करती है और शेष 4 दिन वह यमलोक की ओर प्रस्थान करती है।

इस दौरान किए गए कर्मों के आधार पर आत्मा का निर्णय होता है कि वह स्वर्ग जाएगी, नरक जाएगी या पुनर्जन्म लेगी।

क्या आत्मा देख सकती है? क्या उसे हमारे क्रियाकर्म दिखते हैं?

हां। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि आत्मा सूक्ष्म शरीर में होती है, जिसे स्थूल शरीर की सीमाओं से परे देखने, सुनने और अनुभव करने की क्षमता होती है। वह अपने शव का अंतिम संस्कार देखती है, अपने प्रियजनों की प्रतिक्रिया समझती है, और पिंडदान तथा श्राद्ध कर्मों से उसे ऊर्जा और मानसिक शांति प्राप्त होती है।

पितृलोक और आत्मा की स्थिति

अगर आत्मा को विधिपूर्वक कर्मकांडों और श्रद्धा से विदा किया जाता है, तो वह पितृलोक में स्थान प्राप्त करती है। वहाँ से वह अपने वंशजों की उन्नति में सहायक होती है और आशीर्वाद देती है। यदि उचित संस्कार न किए जाएं, तो आत्मा भटक सकती है और ‘प्रेत योनि’ में रह सकती है।

श्राद्ध कर्म क्यों आवश्यक है?

श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा के साथ पितरों का स्मरण और उन्हें तर्पण देना। इसके माध्यम से पितृगण प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं। यह कर्म हमें यह सिखाता है कि मृत्यु के बाद भी हम अपने पूर्वजों से जुड़े रहते हैं।

मृत्यु और पुनर्जन्म

सनातन धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई है। आत्मा अपने कर्मों के आधार पर अगले जन्म को प्राप्त करती है। यह जन्म पशु, मानव, या देव योनि में हो सकता है। यमराज कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उसी के अनुसार आत्मा को अगला जीवन प्रदान करते हैं।

विशेष प्रश्न: क्या आत्मा पुनः परिवार में जन्म ले सकती है?

हां, कई बार आत्मा अपने परिवार में ही पुनः जन्म लेती है। यदि उसकी मृत्यु असमय हुई हो, या उसने कोई अधूरा संकल्प छोड़ा हो, तो वह आत्मा पुनः अपने वंशजों में जन्म लेने की संभावना रखती है। कई परिवारों में जन्मे बच्चों की यादें, व्यवहार, या लक्षण पूर्वजों से मिलते-जुलते पाए जाते हैं।

गरुड़ पुराण में वर्णित आत्मा की यात्रा

गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है कि मृत्यु के बाद आत्मा किन-किन मार्गों से गुजरती है:

  1. प्रथम 10 दिन – आत्मा पृथ्वी पर ही रहती है, अपने परिजनों के आसपास।
  2. 11वां से 13वां दिन – यमलोक की यात्रा आरंभ होती है।
  3. 14वें से 17वें दिन – यमराज आत्मा को कर्मों के अनुसार निर्णय देते हैं।

सनातन धर्म में मृत्यु केवल अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत मानी जाती है। 13 दिनों तक किए गए क्रियाकर्म आत्मा की गति और उसकी शांति के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। (Sanatan Dharma Death Rituals)पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध जैसे संस्कार आत्मा को न केवल ऊर्जा प्रदान करते हैं, बल्कि उसे अगले लोक की ओर शांति से बढ़ने में सहायता करते हैं। मृत्यु के बाद भी जीवितों का कर्तव्य है कि वे departed soul को श्रद्धा, प्रेम, और विधिपूर्वक विदा करें।

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